कौन सी फिल्म किस वर्ग के दर्शकों के देखने के लिए उपयुक्त है, यह अब आपको फिल्म का पोस्टर देख कर ही समझ में आ जाएगा. हाल ही में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने सिनेमेटोग्राफी एक्ट 1952 को संशोधित करते हुए पूर्व प्रचलित फिल्म विभाजन की तीन श्रेणियों को समाप्त कर दिया है और इनके स्थान पर चार नई श्रेणियों को अपनाया गया है, जिससे दर्शक श्रेणियों को बेहतर ढंग से परिभाषित किया जा सके.
ये नई श्रेणियां कुछ इस तरह हैं:
‘यू‘ सर्टिफिकेट- उन फिल्मों को दिया जाएगा जो किसी भी वर्ग के दर्शकों के लिए उपयुक्त हैं.
’12+’ सर्टिफिकेट- जैसेकी साफ जाहिर है कि यह 12 वर्ष से अधिक उम्र वाले दर्शकों के लिए है.
15+ सर्टिफिकेट- यह दर्शाएगा कि फिल्म 15 वर्ष से ऊपर वाले दर्शकों के देखने योग्य है.
‘ए‘ सर्टिफिकेट– इससे आशय है कि फिल्म केवल वयस्कों के लिए ही है.
इसके अलावा फिल्म निर्माताओं और निर्देशकों को यह भी आदेश दिया गया है कि वह फिल्म के पोस्टरों पर यह बड़े-बड़े अक्षरों में अंकित करें कि संबधित फिल्म किस वर्ग के दर्शकों के लिए उपयुक्त है.
जिन उद्देश्यों को ध्यान में रखकर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने इन नए नियमों को लागू करने का विचार कर रहा है, उसका अपेक्षित परिणाम मिलना और फिल्म के दर्शक-वर्ग की संख्या में कोई खास परिवर्तन आना थोड़ा मुश्किल प्रतीत होता है. अकसर यही देखा गया है कि इन सेंसर प्रमाणपत्रों का फिल्म की कहानी और दर्शकों से कोई विशेष संबंध नहीं होता. अमूमन निर्माता अपनी फिल्म को किसी भी तरह ‘ए’ सर्टिफिकेट नहीं मिलने देना चाहते क्योंकि ‘ए’ सर्टिफिकेट केवल वयस्कों को ही संबंधित फिल्म देखने की इजाजत देता है. इससे फिल्म की दर्शक संख्या काफी हद तक प्रभावित होने के साथ सीमित हो जाती है, जिसकी वजह से निर्माता को अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता.
फिल्म निर्माताओं का अंतिम ध्येय अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करना होता है और अपने इसी स्वार्थ सिद्धि के लिए वे बेहूदा व बेतुके पैंतरे अपनाने से भी नहीं चूकते और इन्हीं की सहायता से वे फिल्म को दर्शकों की उत्सुकता का केंद्र बना देते हैं, ताकि जिज्ञासु दर्शक फिल्म को देखने आएं चाहे वह फिल्म, उसके दृश्य सभी के देखने लायक हों या न हों. ऐसा अकसर होता है कि फिल्म की कहानी और उसके विषय बच्चों के देखने लायक नहीं होते, लेकिन अपनी पहुंच का उपयोग कर निर्माता फिल्म को ‘यू’ सर्टिफिकेट दिलवाने में कामयाब हो जाते हैं, जिसका नकारात्मक प्रभाव हमारी युवा पीढ़ी पर पड़ता है.
लेकिन कई बार कुछ निर्माता अपनी फिल्म को ‘ए’ प्रमाणपत्र दिलवाना चाहते हैं. इसका मकसद फिल्म को ज्यादा प्रसिद्धि दिलवाना भी होता है. फिल्म प्रदर्शित करने से पहले निर्माता फिल्म की कहानी को इस कदर चर्चा का केंद्र बना देते हैं कि दर्शक उसे देखने के लिए लालायित हो उठता है. पूर्व निर्धारित प्रचार नीति के तहत फिल्म के किसी हिस्से को या उसके दृश्य को बड़ा-चढ़ा के पेश कर दिया जाता है कि आम व्यक्ति उसमें दिलचस्पी लेने लगता है और उस फिल्म को देखने का मन बना लेता है.
आज निर्माता, दर्शकों की मानसिकता को भली-भांति भांप गए हैं. वह यह समझते हैं कि जब तक फिल्म की कहानी दर्शक को आकर्षित नहीं करेगी, दर्शक फिल्म देखने नहीं आएंगे. इसी को ध्यान में रखते हुए वे फिल्म का प्रचार करते हैं और शायद जितना व्यय वह फिल्म निर्माण में नहीं करते उससे कहीं ज्यादा उसके प्रचार-प्रसार में कर देते हैं. इन्हीं वजहों से सेंसर प्रमाणपत्रों का वितरण भी विवादों के घेरे में आ गया है. उपरोक्त को देखते हुए देश को एक उचित व संतुलित फिल्म प्रमाणन नीति की जरूरत है ताकि अनावश्यक रूप से किसी फिल्म को ज्यादा चर्चा ना मिल जाए और ना ही देखने योग्य फिल्में उपेक्षित रहें.
Read Comments