आजकल हिन्दी फिल्मों में विषयों की कमी साफ देखने को मिलती है. और ऐसे में जब कोई फिल्मकार सामाजिक मुद्दों पर फिल्म बनाता है तो उसके सामने इतनी परेशानियां आती हैं कि उसे देख अन्य फिल्मकार ऐसे विषयों पर फिल्में बनाने से पीछे हट जाते हैं. हाल के समय में “खाप” और “आरक्षण” दो ऐसी फिल्में हैं जो समाज के बहुत ही अहम मुद्दों पर बनी फिल्में हैं. इसमें से फिल्म “खाप” तो रिलीज हो गई है पर विवादों के बाद. और अब लाइन में है निर्देशक प्रकाश झा की बहुचर्चित फिल्म “आरक्षण.”
आगामी 12 अगस्त को प्रदर्शित होने जा रही आरक्षण एक सामाजिक-राजनीतिक फिल्म है, जो सरकारी नौकरियों व शैक्षिक संस्थानों में जाति आधारित आरक्षण की विवादास्पद नीतियों पर बनी है. प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण में अमिताभ एक प्राचार्य की भूमिका में हैं. फिल्म में अमिताभ शिक्षा से वंचित हर वर्ग के लिए समान अवसर के पक्षधर हैं. फिल्म में अमिताभ बच्चन के अलावा सैफ अली खान और दीपिका पादुकोण मुख्य भूमिका में हैं. इस फिल्म के बारे में प्रकाश झा का कहना है कि उनका मकसद लंबे समय से दबी हुई निम्न जाति का दर्द दिखाने के साथ-साथ उच्च-जाति के उन छात्रों का दर्द दिखाना भी था, जिनके लिए उनके हिस्से के मौके अचानक कम हो गए.
लेकिन फिल्म “आरक्षण” पर्दे पर आने से पहले ही विवादों में घिर गई है. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने आरक्षण से संबंधित प्रावधानों के उल्लंघन की संभावना को देखते हुए केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को नोटिस जारी किया है. आयोग के अध्यक्ष व सांसद पीएल पुनिया ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष को नोटिस जारी कर निर्माता निर्देशक प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण को आयोग के समक्ष दर्शाने के निर्देश दिए हैं. श्री पुनिया के निजी सचिव राजेश छीपा ने बताया आयोग ने यह कदम फिल्म आरक्षण को लेकर गलत प्रावधान व संविधान की आरक्षण संबंधित व्यवस्था के नियमों का किसी प्रकार उल्लंघन अथवा भ्रम की स्थिति पैदा न होने देने को ध्यान में रखकर उठाया है.
फिल्म निर्देशक झा ने हालांकि प्रतिनिधियों की इस मांग से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि वह इस फिल्म को सिर्फ सेंसर बोर्ड को दिखाएंगे और यह बोर्ड का विशेषाधिकार है कि वह इसे किसी अन्य संस्था को दिखाए. सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म को आरक्षण’ को यू/ए प्रमाणपत्र जारी किया है.
आखिर “आरक्षण” है क्या बला
भारत के 1950 के संविधान में सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए 22.5 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है. व्यापक रूप से यह एक स्वीकार्य कार्यक्रम है. लेकिन 1980 में मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया कि 27 फीसदी अतिरिक्त जगहें अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कर दी जानी चाहिए. इस वर्ग को भी भारत के जाति-वर्गीकरण की पीड़ा झेलनी पड़ी है.
इसका कार्यान्वयन आसान नहीं था. बाद की सरकारों ने इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया. लेकिन 1990 की सरकार ने मंडल रिपोर्ट में दिए सुझावों के कार्यान्वयन की घोषणा की. जिसके बाद उन्हें सड़कों पर होने वाले विरोध-प्रदर्शनों और उच्च-जाति के विद्यार्थियों द्वारा खुदकुशी का सामना करना पड़ा. खुदकुशी करने वालों में एक लड़की भी शामिल थी, जिसने प्रधानमंत्री की रैली के नज़दीक आत्मदाह किया. जब अन्य राजनीतिक दल एक समझौते पर पहुंच गए, तब उक्त प्रधानमंत्री सत्ता से बाहर हो गए. लेकिन सरकार ने 1992 में नौकरियों में आरक्षण पर कार्यान्वयन शुरू कर दिया.
फिल्म में विवाद की वजह सिर्फ आरक्षण का मुद्दा ही नहीं बल्कि फिल्म में इस्तेमाल भाषा भी है. फिल्म में कई जगह गालियों का प्रयोग किया गया है हालांकि अब फिल्मों में गाली होना नई बात नहीं है लेकिन आरक्षण जैसे मुद्दे पर बनी फिल्म में गाली का प्रयोग अटपटा लगता है.
इन सब के अलावा देखना यह भी है कि वाकई फिल्म में आरक्षण जैसे गंभीर मुद्दे को किस तरह से उठाया गया है. इससे पहले भी हम कई ऐसी फिल्में देख चुके हैं जिनमें विषय तो बहुत संजीदा थे लेकिन फिल्म की कहानी में उस मुद्दे की गंभीरता सही से दिख नहीं पाई. हाल ही में रिलीज हुई “खाप” को ही देख लीजिए जिसमें खाप पंचायतों की कहानी को ज्यादा नहीं दिखाया गया है.
फिल्मों की रिलीज से पहले विवादों की कहानी कोई नई नहीं है. फिल्म को हिट कराने के लिए कई फिल्मकार विवादों का भी सहारा लेते हैं. ऐसे विवादों से फिल्म को फ्री की पब्लिसिटी तो मिलती ही है साथ ही कई दर्शक उत्सुकता से भर फिल्म देखने पर्दे पर पहुंच ही जाते हैं.
अब इस फिल्म में क्या है और क्या नहीं है यह तो 12 अगस्त को ही पता चलेगा जब फिल्म रिलीज होगी.
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