हिंदी फिल्मों में प्रोड्यूसर की भूमिका खास और अहम होती है. सामान्य शब्दों में प्रोड्यूसर वह व्यक्ति होता है, जो दो पैसे कमाने की उम्मीद में किसी और के सपने में निवेश करता है. फिल्म पूरी तरह से निर्देशक का माध्यम है. निर्देशक को फिल्म रूपी जहाज का कप्तान भी कहा जाता है, लेकिन निर्देशक के हाथों में जहाज सौंपने का काम निर्माता ही करता है. लेकिन हिंदी फिल्मों ने निर्माताओं की अजीब छवि बना रखी है. फिल्मों में प्रोड्यूसर को काइयां किस्म का व्यक्ति दिखाया जाता है. उसके हाथ में एक नोटों से भरा ब्रीफकेस होता है. शूटिंग समाप्त होने के बाद वह रोजाना सेट पर आता है और सभी के पारिश्रमिक का एक हिस्सा मारने की फिक्र में रहता है. प्रोड्यूसर की यह छवि कोरी कल्पना नहीं है. ऐसे प्रोड्यूसर आज भी दिख जाते हैं जो सिर्फ पैसे मारने और कमाई की फिक्र में रहते हैं.
हिंदी फिल्मों को उद्योग का दर्जा मिलने के बाद एक परिवर्तन साफ दिख रहा है. अब फिल्मों के निवेश, व्यय और आय में पारदर्शिता आई है. फिल्म कंपनियों के पब्लिक इश्यू आने के बाद उनकी जवाबदेही बढ़ी है. सालाना जेनरल बॉडी मीटिंग में इन कंपनियों को निवेशकों की आशंकाओं और सवालों का जवाब देना पड़ता है. निवेशक अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए कंपनी को सचेत रखता है. जिस फिल्म इंडस्ट्री में लेन-देन में नोटों के बंडल चलते थे, अब वहां चेक, ड्राफ्ट और नेटबैंकिंग से काम होने लगा है. आयकर विभाग की सख्ती और चौकसी ने भी निर्माताओं को बड़ी हद तक पारदर्शी होने के लिए मजबूर किया है.
अफसोस है कि इन निर्माताओं के बारे में आम दर्शक नहीं जानता. बोनी कपूर, भरत शाह और मुकेश भट्ट जैसे कुछ नामचीन निर्माताओं को अपवाद कहा जा सकता है. निर्माताओं के इंटरव्यू भी नहीं छपते. निर्माताओं में मीडिया की कोई रुचि नहीं होती. किसी भी फिल्म के बारे में उनके मंतव्य नहीं दिया जाता. निर्माताओं के बारे में यही धारणा मजबूत है कि वह नॉन क्रिएटिव व्यक्ति होता है. फिल्मों के कंटेंट से उसका कोई वास्ता नहीं होता. यह बात कभी सच नहीं रही. हिंदी फिल्मों के आरंभिक दौर से ही ऐसे निर्माताओं की एक जमात क्रिएटिव और इनवॉल्व रही है. उन्होंने निर्देशकों और स्टारों पर भरोसा किया. निर्माता और निर्देशक का परस्पर विश्वास हो तो फिल्में अच्छी बनती हैं.
अभी के निर्माताओं का फिल्मों में क्रिएटिव इनपुट काफी बढ़ गया है. एक तो लगभग सारे स्टार निर्माता बन गए हैं. वे सभी फिल्म के निर्माण में पर्याप्त क्रिएटिव इनपुट देते हैं और फिल्म की मार्केटिंग में भी आगे बढ़कर हिस्सा लेते हैं. आमिर खान, शाहरुख खान, सलमान खान, रितिक रोशन, फरहान अख्तर आदि स्टार निर्माता हैं. दूसरे, निर्माताओं का एक समूह निर्देशकों की जमात से आया है. यश चोपड़ा, आदित्य चोपड़ा, करण जौहर, सूरज बड़जात्या, राम गोपाल वर्मा, विपुल शाह, विधु विनोद चोपड़ा, अनुराग कश्यप आदि इस समूह के उल्लेखनीय नाम हैं. एक्टिंग और डायरेक्शन से प्रोडक्शन में आए निर्माताओं को क्रिएटिव प्रोड्यूसर कहना उचित होगा. इनमें से कुछ ही फिल्म के कंटेंट और उसे अंतिम शेप देने में हस्तक्षेप करते हैं. ज्यादातर क्रिएटिव प्रोड्यूसर फिल्म के फ्लोर पर जाने के पहले ही सारी चीजें तय कर लेते हैं. स्क्रिप्ट लॉक हो जाने के बाद वे आमतौर पर फेरबदल नहीं करते.
इनके अलावा कारपोरेट कंपनियों के प्रमुखों की एक कैटगरी है. हालांकि हर कारपोरेट हाउस में निर्माण की रोजाना जरूरतों के लिए कर्मचारी और अधिकारी नियुक्त कर लिए गए हैं, लेकिन फिल्म के लिए हां कहने या लागत में कतरब्योंत न सोचने के लिए ऐसे निर्माताओं को धन्यवाद देना होगा. मुख्य रूप से यूटीवी, इरोज, रिलायंस, वायकॉम 18 आदि ऐसे कारपोरेट हाउस हैं, जिनमें फिल्म निर्माण को महज बिजनेस या लाभ के लिहाज से नहीं देखा जाता. इन कंपनियों को अपनी कुछ चूकों से भारी नुकसान भी उठाना पड़ा है, लेकिन उन्होंने नए प्रोजेक्ट के खर्च से सहमत होने के बाद कभी तंगदिली नहीं दिखाई.
उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में निर्देशक की सोच और कल्पना को साकार करने में ऐसे क्रिएटिव प्रोड्यूसर का सहयोग बढ़ेगा. आखिरकार ऐसे सहयोग से फिल्में निखर जाती हैं और दर्शकों का भरपूर मनोरंजन होता है.
साभार: याहू
Read Comments