मैं तो तन्दूरी मुर्गी हूं यार, गटकाले मुझे एलकोहॉल से…..
दबंग 2 का यह आयटम सॉंग तो बस एक उदाहरण है कि आज का सिनेमा किस ओर जाता जा रहा है. हिन्दी फिल्मों की सबसे बड़ी खासियत उनके गीत होते हैं जो दर्शकों को शायद फिल्म की कहानी, एक्टर्स आदि सभी से कहीं ज्यादा आकर्षित करते हैं. लेकिन आज जिस तरीके से हिन्दी फिल्मों के बोल लिखे जा रहे हैं उसे देखकर तो यही लगता है कि कभी वैश्विक स्तर पर एक सम्मानजनक स्थान रखने वाले हिन्दी सिनेमा के पतन के दौर की शुरुआत हो चुकी है. अब इसे आधुनिकता की ओर बढ़ते कदम कहें या फिर गीतों में अजीबोगरीब एक्सपेरिमेंट कर उन्हें लोकप्रिय बनाने का चलन लेकिन सच यही है जब से गीतों में संगीत से ज्यादा बोलों को महत्व दिए जाने की प्रथा की शुरुआत हुई है तभी से ऐसे-ऐसे निम्न दर्जे के बोलों से सामना होने लगा है जिन्हें परिवार के भीतर बैठकर सुना क्या गुनगुनाया तक नहीं जा सकता.
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हंसी-मजाक का नाम देकर मुख्यत: या फिर एकमात्र महिलाओं को निशाना बनाना आजकल के संगीतकारों के लिए सफलता का शॉर्टकट हो गया है. रैप और आयटम सॉंग संस्कृति के बढ़ते प्रभाव में तो ऐसे निकृष्ट हालात और अधिक देखने को मिलते हैं.
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अभी पिछले दिनों पंजाबी रैपर हनी सिंह को उनके अश्लील गानों की वजह से काफी विरोध का सामना करना पड़ा. उल्लेखनीय है हनी सिंह के सभी गीतों में महिलाओं को टार्गेट किया जाता है और भी कुछ ऐसे कि सुनने वाले को ही शर्म आ जाए.
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गीत के बोल तो अश्लील और असभ्य होते ही हैं साथ ही गाने के दृश्यों में भी महिलाओं को अर्धनग्न अवस्था में ही पेश किया जाता है.
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यह मसला केवल हनी सिंह या फिर विशिष्ट तौर पर किसी एक गीतकार या गायक से जुड़ा हुआ नहीं है क्योंकि अब प्राय: हर दूसरे गाने में महिलाओं के सम्मान के साथ खिलवाड़ होने लगा है और हैरानी की बात तो यह है कि जहां एक ओर पुरुष वर्ग विशेषकर युवाओं में ऐसे गाने तो लोकप्रिय हो ही रहे हैं वहीं युवतियों को भी खूब लुभा रहे हैं, वह बिना सोचे-समझे ऐसे गानों पर थिरकने लगी हैं, वह खुद यह बात नहीं समझ रही हैं कि यह सब समाज में उनकी छवि को दूषित कर रहा है.
महिला संगठनों के घोर विरोध के बावजूद 2013 के दो दिन पहले हनी सिंह ने अपना नया गाना निकाला है और यू ट्यूब पर एक हफ्ते में उसे 17 लाख से अधिक हिट्स मिले हैं. अब इसी बात से यह समझा जा सकता है कि जो उनके गीत सुनना चाहते हैं उन पर ऐसे विरोधों का कोई असर नहीं पड़ता भले ही वह कितने ही अश्लील और असभ्य क्यों ना हों. भले ही उन गीतों से महिलाओं के प्रति असम्मान की प्रवृत्ति में वृद्धि क्यों ना हो पसंद करने वाले तो ऐसे गीतों को पसंद भी करेंगे और बेधड़क होकर सुनेंगे भी.
संगीत समीक्षकों का भी यही कहना है कि अब गाने मात्र जोक की तरह लिखे जाते हैं जिनमें ना तो बोल होते हैं और ना ही भावनाएं. ऐसे गानों का कला से कुछ भी लेना-देना नहीं होता. लेकिन गीतकारों का कहना है कि ऐसे गाने केवल हंसी मजाक के उद्देश्य से लिखे जाते हैं जिन्हें अश्लील कहना पूरी तरह गलत है.
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बोल्ड निर्देशक माने जाने वाले महेश भट्ट कहते हैं “मनोरंजन एक व्यापार है, अगर संगीतकारों को लगता है कि उनके गीतों को पसंद किया जा रहा है तो वे ऐसे गीतों को दोबारा परोसते हैं. इसमें केवल संगीतकारों को गलत ठहराना सही नहीं है क्योंकि हमाम में तो सभी नंगे हैं.”
वहीं दूसरी ओर प्रख्यात गीतकार प्रसून जोशी का कहना है कि “समाज के दायरे में रहकर, समाज की इज्जत कर लोगों का मनोरंजन करना ज्यादा बड़ा चुनौतीपूर्ण काम है. कपड़े उतारकर खड़े हो जाने से भी प्रसिद्धि तो मिलती है पर क्या इज्जत मिल पाती है?”
देखा जाए तो महेश भट्ट और प्रसून जोशी दोनों अपनी जगह सही हैं. ऐसे में अगर निर्णय करने की जिम्मेदारी किसी की है तो वह है हम यानि आम दर्शक, आम श्रोता की. हमें ही यह निर्धारण करना होगा कि आखिर हम अपनी सोसाइटी को किस ओर लेकर जाना चाहते हैं.
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